
समकालीन कविता राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध सशक्त बौद्धिक विद्रोह व्यक्त करती है। लोकतंत्र एवं स्वतंत्रता की निरर्थकता को लेकर वह क्षुब्ध है। अपने परिवेश में व्याप्त अराजकता एवं शोषण के विरुद्ध यह क्रान्ति लाना चाहती है। उसकी दृष्टि में भ्रष्ट नेता सत्ता को हथियाने के नये-नये हथकंडे अपनाते जा रहे हैं। राजनीति का अपराधीकरण हो गया है। समाजवाद की स्थापना का स्वप्न खण्डित हो गया है। राजनीति की आतंकवादी कूटनीति ने ही समाज को जंगल में परिवर्तित कर दिया है। सामान्य आदमी की दयनीय स्थिति ने इस कवि के ध्यान को आकृष्ट किया है। इसके लिए वर्ग-संघर्ष पूर्ण सामूहिक क्रान्ति करनी होगी। पश्चिम के अन्धानुकरण से सामाजिक व्यवस्था में जो आधुनिकता आई है ये कवि उसका समर्थन नहीं करते। नैतिक मूल्यों में आई गिरावट पर वे चिन्तित हैं। उच्छृंखल यौन क्रांति की भी उसने निन्दा की है। मूल्यहीनता के विरुद्ध लड़ते हुए उसने पुराने मूल्यों में आस्था प्रकट की है। पारिवारिक तथा सामाजिक यथार्थ के प्रति वह पूर्ण सजग है और दैनिक जीवन के यथार्थ के प्रति भी वह पूर्ण सचेत है। मदिरापान, रिश्वतखोरी, चाटुकारिता जैसी दुर्बलताओं पर उसने तीक्ष्ण प्रहार किये हैं। सुविधाजीवी मध्यवर्ग की समझौतावादी मनोवृत्ति पर भी उसने कुठाराघात किया है। सर्वहारा वर्ग को संगठित होकर क्रांति करने के लिए वह प्रेरित करता है। संघर्ष और स्वाभिमान का जीवन जीने की ही प्रेरणा उसने दी है। यथास्थितिवाद एवं अवसरवादिता की उसने घोर निन्दा की है। प्रदर्शन उसे अच्छा नहीं लगता। वह मानता है कि बौद्धिकता, वैज्ञानिकता के कारण आत्मीयता और स्निग्धता का लोप हुआ है। समकालीन परिवेश में व्याप्त तनावों को उसने अभिव्यक्ति दी है। अपनी संस्कृति, कला और सभ्यता के प्रति एक सजग अनुराग इस काव्य में दृष्टिगोचर होता है। वह मनुष्य की अस्मिता की रक्षा करना चाहता है। जीवन और जगत से उसे गहरा लगाव है। यह समष्टिवादी है।
समकालीन कविता का कवि अपने चतुर्दिक परिवेश में व्याप्त आतंक के विरुद्ध संघर्ष कर रहा है। आतंक चाहे आततायी सत्ताधारी का हो या शोषणकर्ता पूँजीपति का या फिर असामाजिक उग्रवादी तत्वों का। सत्ता निर्बल सबल सबको भयावह बना देती है। जनतंत्र अब आतंकतंत्र बन गया है। इस आतंक का शिकार है सामान्य जन। अहिंसा की आँड़ में हिंसा पनप रही हैं। आततायी शासन अपना दमन चक्र चला रहा है। इस कवि ने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में श्रमजीवी वर्ग की दयनीय स्थिति का चित्रण भी अपना विरोध या आक्रोश प्रकट करने के लिए किया है। काले धन से विलासिता में डूबे नर-पिशाचों को उसने लताड़ा है। उसकी जनवादी चेतना में दृढ़ निष्ठा है। इस कवि को यथार्थ का गहन बोध है। वह जानता है कि सर्वसामान्य आदमी का दैनिक जीवन आदि से अन्त तक उलझनों से घिरा रहता है। यह कवि महानगरीय जीवन से संत्रस्त है। यहाँ का जीवन संत्रासों, कुण्ठाओं, मानसिक यातनाओं से भरा जीवन है। ग्रामीण अंचल की स्निग्धता उसे आकर्षित करती है। समकालीन कवि मनुष्यता को ही सर्वोपरि महत्व देता है। वह मानता है कि मनुष्य को सहृदय सहानुभूति पूर्ण, संवेदनशील होना चाहिए। स्वाभिमानी, ईमानदार, कर्तव्य परायण, सरल, मृदुभाषी और कोमल स्वभाव का व्यक्ति समाज का हित करता है। जग-जीवन की पीड़ा से द्रवित हो जाने वाला ही महान हो सकता है। सम्बन्धों की मिठास का अहसास भी इस कवि को खूब है। पति-पत्नी का सन्निध्य जनित लगाव उसे गुदगुदाता है। इस कवि की प्रेमानुभूति भी गहन है। प्रेम में एकाकार होने वाले प्रेमी युगल के आनंद से वह परिचित है। यह कवि प्रकृति-प्रेमी है। प्रकृति के शीतल अंचल के तले जो सुख मिलता है, उसे अनुभव कर रहा है।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि हिन्दी क्षेत्र में आज कविता के कई रूप परिलक्षित हो रहे हैं, जैसे-१. छपी हुई कविता २. मंचीय कविता ३. जनसंचार माध्यमों द्वारा प्रसारित कविता ४. सिने गीत या फिल्मी कविता ५. जनपदीय विभाषाओं में रचित कविता ६. अनूदित कविता ७. लोकगीत, लोकगाथायें अर्थात् लोकमानस द्वारा रचित कविता ८. विज्ञापनों में सन्निहित कविता (पद्यबन्ध) ९. कम्प्यूटर से संभावित कविता आदि। इनमें सर्वाधिक दुर्दशा है छपी हुई कविता की। पत्र-पत्रिकाओं में उसका प्रतिशत दिनोंदिन घटता जा रहा है, इसलिए कि उसकी पाठकीयता मिटती-सिमटती जा रही है। पाठकीयता का संकट आया है, पठनीयता की कमी के कारण। इस बीच अधिकतर कवियों ने संगीत यानी छन्द को लगभग पूरी तरह छोड़ दिया। अतः वाचिकता कम हो गयी है। उन्होंने न सृजन धर्मिता को सही ढंग से आत्मसात किया और न यति, गति, लय आदि का प्रशिक्षण लिया। जनोपयोगिता, मौलिकता, सहृदयता, संवेदना आदि को भी प्रायः वरीयता नहीं दी गयी। ज्यादातर कवि अपनी शर्तों पर लिखते रहे। आज के अधिकतर कवि आत्मनेपदी कविताएँ करते हैं। वे अधिकतर आत्मसंलाप करते हैं और प्रायः "मैं-मैं" की मिमियाहट व्यक्त करते रहते हैं। कुल मिलाकर व्यक्तिगत कुंठायें, विक्षोभ, नकली नूरा कुश्ती वाला आक्रोश और बदजायका जुगुप्सा बोध। पाठक इसकी अतिशय आवृत्ति से ऊब गया है। उसे इन रचनाकारों की मसीहाई आवाज अब छू नहीं पाती। ये रचनाकार एक ओर व्यवस्था-विरोध का क्षद्म आचरण करते हैं, बड़बोलापन प्रकट करते हैं और दूसरी ओर सत्ता की परिक्रमा करते रहते हैं। वे अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनते हुए स्वयं को कविर्मनीषी, युग द्रष्टा, स्रष्टा यानी महामति (त्रिकालज्ञ) या बुद्धिजीवी मान लेते हैं। आज भी वे कवि कर्म को लोकोत्तर क्रिया समझ बैठते हैं और मन ही मन ऐंठ जाते हैं। इस आत्म मुग्धता के कारण वे सहज जनकवि नहीं हो पाए हैं। इन्होंने पश्चिम के कुछ वाद पढ़ लिए और अपने को मध्यवर्ग से अलग कर लिया। प्रयोगवाद के दौर में अज्ञेय ने कभी दम्भवश यह घोषणा कर दी थी कि सम्प्रेषण हमारी समस्या नहीं है, यानी जिसकी गर्ज हो वह पढ़े। कुछ दिनों तक कविता से यह पुराना नाता-रिश्ता चलता रहा। भक्ति काव्य से लेकर १९६० तक पाठक वर्ग कविता से सुख-दुखात्मक संवाद करता रहा। उसी बीच छायावादी कविता जमीन छोड़कर सप्ताकाश की ओर चली गयी। प्रगतिवादी कविता राजनीतिक नारे लगाने में सक्रिय हो गयी और प्रयोगवादी कविता कला-करतब में खो गयी तो तुक, ताल विहीन गद्य में लिखी गयी ये वक्तव्य जैसी कविताएँ न पाठकों का मनोरंजन कर पायीं और न जन्न शिक्षण एवं प्रबोधन दे पायीं। इस बीच संगीत का सहारा लेकर और रोजमर्रा के सहजानुभूति से जुड़कर फिल्मी कविता सब पर छा गयी। इसी समय मंचीय कविता ने अपना एक नया तेवर दिखाया। जनता प्रशासनिक भ्रष्टाचार और नेतागिरी से क्षुब्ध हो रही थी, अतः मंच के कवियों ने बड़ी नाटकीयता के साथ भ्रष्टाचार से जुड़ी दैनन्दिन घटनाओं पर हास्य-व्यंग्य पूर्ण रचनायें (टिप्पणियाँ) पढ़नी शुरू कर दीं। फलतः वे लोकप्रिय हो गए और कलावादी कवि मंचों से उखड़ गये। आज ये हँसोड़िये अथवा दर्देदिल के चितेरे, गजलगो, साथ ही नकली आक्रोश-विद्रोह से ओत प्रोत ये वीर रस वाले मंच तोडू का जन-साधारण के कंठहार हो गये हैं। इस बीच बुद्धिवादी कवि समसामयिक विषयों पर लिखना हेठी समझते रहे, जबकि ये मंचीय गला फाडू कवि पूरी तरह अपने लक्ष्यभ सामान्य श्रोता समाज के मनोविज्ञान से सम्बद्ध रहे। उनका उद्देश्य चित्तवृत्ति का उन्नयन करना नहीं, बल्कि तुष्टीकरण करना है, इसलिए कि मंच उनका व्यवसाय है, न कि कोई मिशन। सम्प्रति कई फिल्मी और मंचीय कवि लोकप्रियता के शिखर पर हैं। वे अपनी दस पांच पंक्तियों का मानदेय लाखों में लेते हैं और कई मंचीय सिने कवयित्रियाँ भी। इधर लाफ्टर चैनेल 'इन्हें उखाड़ते हुए दिख रहे हैं। सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह कि छपी कविता का कोई पुरसा हाल नहीं रह गया है। पत्र-पत्रिकाओं में वे रिक्त स्थान की पूर्ति करने के लिए 'फीडर' रूप में छापी जाती हैं। उनमें भी ज्यादातर रोमैंटिक रसीली रचनायें होती हैं। अपने खर्चे से उन्हें छापना प्रकाशकों-संपादकों ने लगभग बंद कर दिया है। पाठ्यक्रमों में भी इन कवियों का प्रवेश लगभग प्रतिबंधित है। दूसरी ओर चिंतन-सृजन प्रकाशन इस बीच कम्प्यूटर प्रिंटिंग के कारण काफी आसान हो गया है। इसलिए प्रायः हर कवि दस-बीस हजार खर्च करके अब स्वयं अपने काव्य संकलन का प्रकाशन करने, उसका लोकार्पण कराने और उस पर प्रायोजित समीक्षाओं को छापने के लिए व्यग्र उदग्र दिखाई देता है। यही कारण है कि इन दिनों काव्य-संकलनों की बाढ़ आ गयी है। यह झाड़-झंखाड़ इतना सघन हो गया है कि अच्छी कविताएँ उसी में दबती जा रही हैं।
कविता का जनाधार चूँकि इस बीच कम हो गया है, इसलिए बहुसंख्यक कवि समुदाय राज्याश्रय की ओर मुड़ गया है। साहित्यिक संस्थाओं के भीतर पुरस्कारों की वीभत्स-भयंकर रणनीति चल रही है। सरकारी थोक बिक्री के क्षेत्र में भीषण जंगी प्रतिस्पर्धा मची हुई है। किताबों के शीर्षक, कागज, छपाई आदि प्रायः नयनाभिराम। बस कमी है सहृदय समाज की। मंचों पर से ये कवि हूट कर दिए जाते हैं। केवल छोटी निजी गोष्ठियों में ही इनकी खपत है। ये ज्यादातर जनवादी चेतना से प्रेरित हैं, किन्तु जन तक पहुँच नहीं पाते हैं। इन्होंने खास तरह के मुहावरे गढ़ लिए हैं। गजल में वे शब्द-क्रीड़ा करने लगे हैं। नवगीत में लफ्फाजी दिखाते हैं और गद्यात्मक कविता में वे वक्तव्य देते हैं। ये तीनों धारायें किसी एक विषय को लेकर जमकर पाठक का रस-परिपाक नहीं कर पातीं। इनका मुक्ताषंग केवल उन्हें ऊपर से छूकर रह जाता है, इसलिए इनकी लफ्फाजी का स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता है। जनपदीय विभाषाओं में रचित कविताएँ तृणमूल से अपेक्षाकृत ज्यादा जुड़ी हुई हैं, लेकिन इन राजस्थानी; ब्रज, अवधी, भोजपुरी, बुन्देली, कवियों के पास भौतिक संसाधनों का बड़ा अभाव है। न पत्र-पत्रिकायें हैं, न प्रकाशक हैं, न पुरस्कार प्रदात्री संस्थायें हैं, न थोक ब्रिक्री। न पाठ्यक्रम में प्रवेश है और न शोध क्षेत्र में प्रतिष्ठा है। स्थानीय मंच ही इनका एकमात्र शरण स्थल है। लोक वांग्मय में रचित कविता कहीं-कहीं व्यावसायिक कैसेटों में ढल गयी है, पर ज्यादातर लोक कंठ में विद्यमान हैं और क्रमशः छीजती जा रही है। यह बाजारू वृत्ति भोजपुरी (महुआ चैनेल) एवं राजस्थानी जैसी विभाषा को क्षत विक्षत किये डाल रही है। इधर विज्ञापनों में कविता (पद्य) को विशेष प्रश्रय दिया गया है। एक मेगा स्टार के द्वारा प्रस्तुत की गयी ये पंक्तियाँ- 'दिल की पतंग है सपनों का शोर, आसमान भी कम है, यह दिल माँगे मोर यह कविता जैसी दिखती है। इसी प्रकार 'मारा सिक्स, हो गया फिक्स, अंकल चिप्स', 'जब चाहो हो जाय, कोको कोला एन्जाय', 'देगी मिर्च का तड़का, अंग अंग फड़का', 'आयोडेक्स मलिये, काम पर चलिये', 'स्वाद लाजवाब, सुगंध, वाह जनाब’, 'त्योहारों की उमंग, यूपिका के संग’ आदि। इन सबमें तुकान्तता तो है ही, कुछ कुछ काव्योचित लक्षणा-व्यंजना भी है। इससे निष्कर्ष यह निकल रहा है कि जिस कविता को हमारे समकालीन कवियों ने अपनी वैचारिक हठधर्मिता के कारण निष्प्रभाव बना डाला था, उसे विज्ञापन दाताओं और फिल्मी गीतकारों ने बाजार यानी ग्राहकों से जोड़कर पुनर्जीवित कर दिया है, भले ही अपने निहित स्वार्थवश सम्प्रति कविता छोटी घरेलू गोष्ठियों में सीमित हो गयी है। लिखास-भँड़ास-छपास काफी बढ़ गयी है, इसलिए रचनाकारों ने अपने अलग-अलग मंच बना लिए हैं, जहाँ वे परस्पर गायक तथा श्रोता की भूमिका निभाते हैं और इसी बहाने वे अपनी सिसृक्षा की क्षति पूर्ति कर ले जाते हैं। इस बीच एक आश्चर्य जनक प्रयोग कम्प्यूटर ने किया है, अंग्रेजी भाषा में सॉनेट की रचना करके। संभव है, कभी हिन्दी घनाक्षरी, दोहा, गीत और गजल की कंप्यूटरी रचना भी की जा सके। शायद कभी कविता का डी०एन०ए० क्लोन, हारमोन या जीन्स भी खोज लिया जाये, बशर्ते बाजार साथ दे। इधर विश्व-भाषाओं के पारस्परिक अनुवाद का नया चलन शुरू हुआ है। मिले-जुले कवि-सम्मेलन काफी होने लगे हैं। कविता को समकालीन व्यवस्था से जोड़ने के लिए यह आवश्यक हो गया है कि-
१. उसे पुनः श्रुति-काव्य बनाया जाए, वाचन-कला का रिहर्सल किया-कराया जाये। कविता को पहले आत्मसात किया जाए और डायरी देखकर कविता न पढ़ी जाए।
२. काव्य-रचना का औपचारिक अनौपचारिक प्रशिक्षण सुलभ कराया जाए।
३. कविता के मूल दो तय हैं- एक क्रोध, दूसरे करुणा। यदि वर्तमान व्यवस्था के प्रति हम श्रोताओं में क्रोध एवं करुणा जाग्रत कर सकें तो कविता स्वतः लोक ग्राह्य हो जाएगी। बशर्ते मीडियाकर्मियों की तरह वह भी न्यूसेंसवैल्यू बन जाए।
४. कविता का लक्ष्यभूत श्रोता गण खोजा जाए और एक निश्चित अनुपात में उसका मनःप्रसादन किया जाए, साथ ही उच्चीकरण-उदात्तीकरण भी।
५. पारंपरिक कविता में कला-कौतुक, जैसे-समस्यापूर्ति, आशु कविता, गूढ़ काव्य आदि का पुनः प्रचलन किया जाए। 'कविता क्विज बनाकर उसे जनप्रिय बनाया जा सकता है।
६. कविता को संगीत और छन्दोबद्धता से जोड़ा जाए। तुकान्तता नहीं तो स्वर-लय का विधान तो होना ही चाहिए।
७. कविता का गहरा सम्बन्ध है राग चेतना से, इसलिए बौद्धिकता-रागात्मकता में समन्वय स्थापित किया जाए।
८. आज की कविता का मुख्य मुद्दा है सम्प्रेषण। इसके लिए अपेक्षित है-संवेदना, नवोद्भावना, उक्ति वैचित्र्य, भावावेग, नाटकीयता, चित्रण-वर्णन-कला, सपाटबयानी, किस्सागोई,साफगोई, शब्द-सौष्ठव, भाषा संस्कार आदि। सही सम्प्रेषण के लिए शास्त्रीय विचार बिन्दु भी चाहिए और लोक बिम्ब भी। दोनों से युक्त होकर कविता सूक्ति में ढल जाएगी, यानी मन में बस जाएगी। आज कविता केवल वाग् विलास बनकर इस उपभोक्तावादी समाज से बहुत दिनों तक नहीं चल सकेगी। इसे उपयोगी और प्रासंगिक बनाना होगा। कवियों को इसे समकालीन जीवन से जोड़ना होगा। भूमण्डलीकरण, निजीकरण, उदारीकरण के इस दौर में जो लाभ-लोभ छाया हुआ है, पूरी व्यवस्था में जो भ्रष्टाचार व्याप्त है, जो आतंकवाद विद्यमान है, राष्ट्रीय विघटन का जो क्रम चल रहा है और दूसरी ओर ज्ञान-विज्ञान तथा तकनीक का जो विकास हो रहा है, इन सभी विषयों को हमें अपना उपजीव्य बनाना होगा। जगह-जगह पाठक शिविर लगाने होंगे। शब्दों को बुलेट और कविता को शस्त्र एवं शास्त्र दोनों का रूप देना होगा और सर्वाधिक आवश्यक यह है कि शब्द और कर्म में सामंजस्य बिठाना होगा। कविता स्वयं में शहादत है और इबादत का स्वर है। जो उसे स्वान्तः सुखाय मानते हैं, वे डायरी में लिखने के अधिकारी हैं, कविता के प्रकाशन के लिए अधिकृत नहीं है। कविता हर युग के प्रश्नों से टकराती हुई जन मानस में भावोद्रेक पैदा करती रही है। अब-तक काव्य से प्राप्त मनोरंजन और प्रबोधन के दूसरे विकल्प नहीं थे। सूचना प्रौद्योगिकी और संचार माध्यमों के कारण उसका एकाधिपत्य खण्डित हो गया है। ऐसी स्थिति में जनसंवाद के उद्देश्य से कविता की नयी नीति-रीति बनानी होगी, ताकि आज की कविता आज के सवालों से जुड़ सके और एक आवश्यक वस्तु बन सके। समकालीन, काव्य के समक्ष अनेक प्रकार की समस्याएँ हैं। इनमें मुख्य है:-
१. परम्परा और आधुनिकता का द्वंद्व भारतीय संस्कृति हजारों-हजारों वर्षों में विकसित हुई है। भारतीयों को उस पर गर्व है। यहाँ का सर्वसामान्य आदमी अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को नजरन्दाज करके पश्चिमी जगत द्वारा स्थापित आधुनिकता को रातों रात आत्मसात करने के लिए तैयार नहीं है। यहाँ नवीकरण हो रहा है, पर मंद गति से। हमारा साहित्य वैज्ञानिक बोध को पूरी तरह से नहीं अपना सका है। यही वैचारिक संघर्ष का मूल-कारण है।
२. शहरीकरण- समकालीन कविता ग्रामीण और कस्बाई जीवन से निकल कर शहरों में केन्द्रित हो गई है। वह बहुजन की जगह अब उच्चमध्य वर्ग के कुलीन तंत्र से जुड़ती जा रही है, इसलिए उसका जनाधार कमजोर होता दिख रहा है।
३. भूमण्डलीकरण - यह कविता वैश्विक सन्दर्भों से जुड़ रही है। यह शुभ है, किन्तु इससे कविता अपने जमीनी सरोकारों से दूर होती जा रही है। शायद इसीलिए वह उपेक्षित होती जा रही है।
४. स्थानीयता या क्षेत्रीयता- हिंदी कविता अपने आंचलिक प्रादेशिक चरित्र से पूर्णतः मुक्त नहीं हो पाई है। राजनीति ने उसे दिग्भ्रमित कर रखा है। वह बोलियों के पक्ष में विघटन पर आमादा है। राजस्थानी, भोजपुरी तो पार्थक्य हेतु उतारूं हैं।
५. बाजारीकरण- समकालीन कविता मीडिया, मंच और पुस्तक प्रकाशन की गिरफ्त में आ गई है। फिल्मी कैसेटों, सी०डी०, ब्लाग, इंटरनेट आदि में सिमट जाना उसकी नियति हो गई है।
६. सरकारीकरण- इधर राज्याश्रय ने कविकर्म को बहुत प्रभावित किया है। अधिकतर रचनाकार पुरस्कार नीति के शिकार हो गए हैं, जिससे उनका तेज क्षीण हो गया है।
१. मंचीय कविता को अथवा मंचीयता को उपेक्षणीय न मानें, बल्कि काव्य सृजन और वाचन-प्रशिक्षण की व्यवस्था करें। अपनी बिरादरी की क्षमता वृद्धि हेतु उर्दू कविता जनपदीय-लोककविता और फिल्मी कविता को अपने साथ शामिल करें।
२. उसे पाठ्यक्रमों में स्थान दिलाते हुए शोध-सर्वेक्षण तथा सही मूल्यांकन का उपक्रम करें।
३. अधिकाधिक प्रकाशनों, प्रदर्शनियों, पुस्तक मेलों, समारोहों, पुरस्कारों, अनुदानों यानी प्रोत्साहन, प्रचार और सही विपणन की व्यवस्था की जाए।
४. कविता को जाति, लिंग, वर्ग, क्षेत्र, से मुक्त करके देशकाल की सामयिक और शाश्वत समस्याओं, संवेदनाओं तथा विधेयात्मक समाधानों से जोड़कर उसकी उपयोगिता, पठनीयता, पाठकीयता की संवृद्धि करें। इसके लिए एक स्वतंत्र प्रबंधन शास्त्र की आवश्यकता है।
हार्दिक शुभकामनाएं
प्रोफ़ेसर सूर्यप्रसाद दीक्षित